रविवार, 25 नवंबर 2007

आखिर वही हुआ...


आखिर वही हुआ
कितनी कोशिश की
पर सब नाकाम हुईं

दिन रात करी जो बातें
भरी उम्मीदों की ताकत
कल के सपनों से सजा धजा
खास हुआ करता था हर पल
रेत्महल निकली वो दुनिया
लहर एक निगल गयी सब
हजार जतनो से चुने रंग धुले
सपने यथार्थ के संग घुले
अपनी सतरंगी सुबह की भी
कितनी बोझिल शाम हुई

आखिर वही हुआ
कितनी कोशिश की
पर सब नाकाम हुईं

1 टिप्पणी:

डाॅ रामजी गिरि ने कहा…

हजार जतनो से चुने रंग धुले
सपने यथार्थ के संग घुले

अंत के सत्य पर सुन्दर लेखन है..पर आशा की डोर कभी ना छोडे... पुनर्जन्म की बात हमारी संस्कृति में इस आशा को ही परिलक्षित करती है.