मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

अहसास

Black (25)

तुम हो ही नही

तुम्हारे होने का अहसास है

और यहा अभी इस पल

इस खुरदुरे पन्ने से निकलकर

अहसास से विश्वास मे ढलकर

तुम सजीव हो

तुम मेरे पास हो

मंगलवार, 27 नवंबर 2007

अपूर्णता

हम नही रख सकते
स्वयं को एक सा सदा के लिये
बदलना पडता है हमें
वक्त के साथ
वक्त के अनुसार
समेटना पडता है बहुत कुछ
हर जगह से
अपनी अपूर्णता को करने के लिये कम
जीवन भर करना पडता है
संघर्ष
अपनी अपनी अपूर्णता के अनुसार

रविवार, 25 नवंबर 2007

आखिर वही हुआ...


आखिर वही हुआ
कितनी कोशिश की
पर सब नाकाम हुईं

दिन रात करी जो बातें
भरी उम्मीदों की ताकत
कल के सपनों से सजा धजा
खास हुआ करता था हर पल
रेत्महल निकली वो दुनिया
लहर एक निगल गयी सब
हजार जतनो से चुने रंग धुले
सपने यथार्थ के संग घुले
अपनी सतरंगी सुबह की भी
कितनी बोझिल शाम हुई

आखिर वही हुआ
कितनी कोशिश की
पर सब नाकाम हुईं

शुक्रवार, 23 नवंबर 2007

शब्द जो मैने कहे हि नही...

होथो के थीक पीछे हि था शब्द
और वह पीछे हि रह गया
आवाज का माध्यम मिला ही नही उसे
शब्द अर्थ समेटे मेरे मन का खामोश रह गया

गुरुवार, 22 नवंबर 2007

स्वप्न…सुनो..

स्वपन
तुम न होते तो
यथार्थ से हर सुबह गले मिलना सम्भव नही होता
तुम्हरी ही दी हुइ आभाशी शक्ति है
जिसने मुझे वास्तविकता की क्रूरता से बचाया है
स्वपन
तुम रात्रि कि नीरवता मे एक मात्र हितैशी हो
मुझे निराश नही करते
कभी ना नही कहते
जब कभी मैने बुलाया
द्वार पर दस्तक पायी तुम्हारी
स्वप्न
मेरी नाकामियो को तुमने स्वीकार नही किया’
मुझे कम्जोर नही होने दिया
कल से बेहतर करने का अहसास दिया तुमने
स्वप्न
याद रहेगा तुम्हारा अपनत्व

आज तुम आओगे क्या ?

हर बार शाम ४ से ५
एक घण्टा या कुछ और अधिक
पार्क की बेन्च पर समय गुजारती हू
इन्तजार मे …
देखती हू खेलते बच्चो को
बीच बीच मे लौटाती हु छिटककर आयी गेद को
बुनती हू तुमहारे दिखाये सपनो को थोडा सा और
हर बार कि तरह जानती हु
वक्त अपनी सारी दुश्मनी आज निकालेगा
आखिर पुरा एक हफ़्ता उसने इन्तजार किया है
मेरे इस इन्तजार का..
पता नही क्यो..
आज ही तुम्हे काम ज्यादा होता है
देर से क्यो निकल्ते हो आज
बुदबुदाती हू मन ही मन
जान्कर भी कि है ये सब बेकार
मजबूर हू … कही जा भी नही सकती
कुछ दूर घूमकर आ भी नही सकती
अगर कही इस बीच आ गये तुम…
तो ….पिछ्ली बार जो सब हुआ नही दोहराना चाहती
उस सब से तो बेहतर है यही बैथा जाये
और अपनी मजबूरी को सहा जाये
पता नही ऐसे मे तुम कभी फ़ोन क्यु नही करते
कब से सोच रही हू
एक बार तुमसे बात करू
पता करू अभी कहा हो
ओफ़िस से बाहर निकले
या आज फ़िर बसो ने न आने कि कसम खा रखी है
तुम्हे पता है कभी कभी लगता है
हमारे बारे मे सारी दुनिया को पता है
तभी सब मिल्के साजिस करते है
पुरी कोसिस कि हम मिल ना सके
तुम इसे मेरे मन क वहम कहोगे
हो भी सकता है
लेकिन…..हर बार जब इन्तजार करना पड्ता है
तो इसे सच मानने का मन करता है
देख लो..फ़िर से ४.४५ हो गये तुमहरा कोइ पता नही
कितनी बार नम्बर लगा के काट चुकी हू
पता नही क्यु
मेरे फ़ोने करने पर तुम इतना बिगड जाते हो
सारी दुनिया का गुस्सा मुझ पर उडेल देते हो
और आकर भी मुह फ़ुलाकर बैथ जाते हो
हमे वक्त ही कितना मिलता है
मै नही चहती कि उन कुछ पलो मे ऐस कुछ भी हो
इस्लिये आज भी फ़ोन नही करुगी
सिर्फ़ इन्तजार करुगी
पिछ्ले कई सालो से यही तो आया है मेरे हिस्से मे
और कर लूगी इस इन्तजार मे
कि एक दिन तुम भी आओगे मेरे हिस्से मे

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

विद्रोह का जन्म

विद्रोह से पहले तक कितना कुछ सहा गया . अपने ही हाथो अपनी उम्मीदों का गला घोटा गया. विद्रोह से पहले तक मैं पराजित था. साहस नही था कि अन्याय के विरुद्ध नजरे उथाकर देख सकू. फ़िर विद्रोह का जन्म हुआ.और अब सब कुछ बद्ल गया है. 'मैं अपराजित हू' कि भावना मेरे मेर केन्द्र मे है. इसकी छांव मे विद्रोह का बीज सांस ले रहा है. जबकी सच तो यह है की मै जानता हू जिसके विरोध मे खडा हू मै वह आज भी मुझसे अधिक शक्तिशाली है.आखिर वर्षों तक उसने मेरे अस्तित्व को कुचला है.इतना की एक झटके मे उठ कर खडा हो पाना संभव नहीं.लेकिन अब मै असहाय नही हू.इससे आगे एक कदम बढाना उसके लिये आसान नही होगा.विद्रोह का सुरक्शा कवच मेरे पास है. भले हि यह तुम्हारे आक्रमणो से मुझे अधिक देर तक बचा न सके. लेकिन जब तक यह है तुम मुझ पर और अधिक नाजायज अधिकार नही कर पाओगे. तुमसे देखी नही जायेगी तुम्हारी पराजय . तुम तिलमिलाओगे चीखोगे चिल्लओगे अपनी विवशता पर .तुम्हारे हर अनैतिक अधिकार को भस्म कर देगी मेरे विद्रोह की आग.छ्टपटाहट मे क्या करोगे तुम. अधिकतम यही ना कि एक दिन बना दोगे मुझे अतीत ,तुम कर सकते हो आखिर अब तक शक्ति का पान तुमने ही तो किया है.लेकिन मत भूलना मेर बाद तुम किसी और पर अपना चाबुक नही चला पाओगे.जब कभी कोशिश भी करोगे तो मेरा विद्रोह आकर रोक लेगा तुम्हारे हाथ.देखना इस अहसास मात्र से तुम कांप कर रह जाओगे.अभी तक चला आ रहा तुम्हारा विजयरथ मेरे विद्रोह को जीत नही पायेगा. मै आज जो विद्रोह कर रहा हू उसका उद्धेश्य भी तुम्हे नही तुम्हारे अहं को जीतना है.मै इसमे सफ़ल होऊगा.और यही मेरे विद्रोह की जीत होगी.