मंगलवार, 20 नवंबर 2007

विद्रोह का जन्म

विद्रोह से पहले तक कितना कुछ सहा गया . अपने ही हाथो अपनी उम्मीदों का गला घोटा गया. विद्रोह से पहले तक मैं पराजित था. साहस नही था कि अन्याय के विरुद्ध नजरे उथाकर देख सकू. फ़िर विद्रोह का जन्म हुआ.और अब सब कुछ बद्ल गया है. 'मैं अपराजित हू' कि भावना मेरे मेर केन्द्र मे है. इसकी छांव मे विद्रोह का बीज सांस ले रहा है. जबकी सच तो यह है की मै जानता हू जिसके विरोध मे खडा हू मै वह आज भी मुझसे अधिक शक्तिशाली है.आखिर वर्षों तक उसने मेरे अस्तित्व को कुचला है.इतना की एक झटके मे उठ कर खडा हो पाना संभव नहीं.लेकिन अब मै असहाय नही हू.इससे आगे एक कदम बढाना उसके लिये आसान नही होगा.विद्रोह का सुरक्शा कवच मेरे पास है. भले हि यह तुम्हारे आक्रमणो से मुझे अधिक देर तक बचा न सके. लेकिन जब तक यह है तुम मुझ पर और अधिक नाजायज अधिकार नही कर पाओगे. तुमसे देखी नही जायेगी तुम्हारी पराजय . तुम तिलमिलाओगे चीखोगे चिल्लओगे अपनी विवशता पर .तुम्हारे हर अनैतिक अधिकार को भस्म कर देगी मेरे विद्रोह की आग.छ्टपटाहट मे क्या करोगे तुम. अधिकतम यही ना कि एक दिन बना दोगे मुझे अतीत ,तुम कर सकते हो आखिर अब तक शक्ति का पान तुमने ही तो किया है.लेकिन मत भूलना मेर बाद तुम किसी और पर अपना चाबुक नही चला पाओगे.जब कभी कोशिश भी करोगे तो मेरा विद्रोह आकर रोक लेगा तुम्हारे हाथ.देखना इस अहसास मात्र से तुम कांप कर रह जाओगे.अभी तक चला आ रहा तुम्हारा विजयरथ मेरे विद्रोह को जीत नही पायेगा. मै आज जो विद्रोह कर रहा हू उसका उद्धेश्य भी तुम्हे नही तुम्हारे अहं को जीतना है.मै इसमे सफ़ल होऊगा.और यही मेरे विद्रोह की जीत होगी.

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