मंगलवार, 27 नवंबर 2007

अपूर्णता

हम नही रख सकते
स्वयं को एक सा सदा के लिये
बदलना पडता है हमें
वक्त के साथ
वक्त के अनुसार
समेटना पडता है बहुत कुछ
हर जगह से
अपनी अपूर्णता को करने के लिये कम
जीवन भर करना पडता है
संघर्ष
अपनी अपनी अपूर्णता के अनुसार

रविवार, 25 नवंबर 2007

आखिर वही हुआ...


आखिर वही हुआ
कितनी कोशिश की
पर सब नाकाम हुईं

दिन रात करी जो बातें
भरी उम्मीदों की ताकत
कल के सपनों से सजा धजा
खास हुआ करता था हर पल
रेत्महल निकली वो दुनिया
लहर एक निगल गयी सब
हजार जतनो से चुने रंग धुले
सपने यथार्थ के संग घुले
अपनी सतरंगी सुबह की भी
कितनी बोझिल शाम हुई

आखिर वही हुआ
कितनी कोशिश की
पर सब नाकाम हुईं

शुक्रवार, 23 नवंबर 2007

शब्द जो मैने कहे हि नही...

होथो के थीक पीछे हि था शब्द
और वह पीछे हि रह गया
आवाज का माध्यम मिला ही नही उसे
शब्द अर्थ समेटे मेरे मन का खामोश रह गया

गुरुवार, 22 नवंबर 2007

स्वप्न…सुनो..

स्वपन
तुम न होते तो
यथार्थ से हर सुबह गले मिलना सम्भव नही होता
तुम्हरी ही दी हुइ आभाशी शक्ति है
जिसने मुझे वास्तविकता की क्रूरता से बचाया है
स्वपन
तुम रात्रि कि नीरवता मे एक मात्र हितैशी हो
मुझे निराश नही करते
कभी ना नही कहते
जब कभी मैने बुलाया
द्वार पर दस्तक पायी तुम्हारी
स्वप्न
मेरी नाकामियो को तुमने स्वीकार नही किया’
मुझे कम्जोर नही होने दिया
कल से बेहतर करने का अहसास दिया तुमने
स्वप्न
याद रहेगा तुम्हारा अपनत्व

आज तुम आओगे क्या ?

हर बार शाम ४ से ५
एक घण्टा या कुछ और अधिक
पार्क की बेन्च पर समय गुजारती हू
इन्तजार मे …
देखती हू खेलते बच्चो को
बीच बीच मे लौटाती हु छिटककर आयी गेद को
बुनती हू तुमहारे दिखाये सपनो को थोडा सा और
हर बार कि तरह जानती हु
वक्त अपनी सारी दुश्मनी आज निकालेगा
आखिर पुरा एक हफ़्ता उसने इन्तजार किया है
मेरे इस इन्तजार का..
पता नही क्यो..
आज ही तुम्हे काम ज्यादा होता है
देर से क्यो निकल्ते हो आज
बुदबुदाती हू मन ही मन
जान्कर भी कि है ये सब बेकार
मजबूर हू … कही जा भी नही सकती
कुछ दूर घूमकर आ भी नही सकती
अगर कही इस बीच आ गये तुम…
तो ….पिछ्ली बार जो सब हुआ नही दोहराना चाहती
उस सब से तो बेहतर है यही बैथा जाये
और अपनी मजबूरी को सहा जाये
पता नही ऐसे मे तुम कभी फ़ोन क्यु नही करते
कब से सोच रही हू
एक बार तुमसे बात करू
पता करू अभी कहा हो
ओफ़िस से बाहर निकले
या आज फ़िर बसो ने न आने कि कसम खा रखी है
तुम्हे पता है कभी कभी लगता है
हमारे बारे मे सारी दुनिया को पता है
तभी सब मिल्के साजिस करते है
पुरी कोसिस कि हम मिल ना सके
तुम इसे मेरे मन क वहम कहोगे
हो भी सकता है
लेकिन…..हर बार जब इन्तजार करना पड्ता है
तो इसे सच मानने का मन करता है
देख लो..फ़िर से ४.४५ हो गये तुमहरा कोइ पता नही
कितनी बार नम्बर लगा के काट चुकी हू
पता नही क्यु
मेरे फ़ोने करने पर तुम इतना बिगड जाते हो
सारी दुनिया का गुस्सा मुझ पर उडेल देते हो
और आकर भी मुह फ़ुलाकर बैथ जाते हो
हमे वक्त ही कितना मिलता है
मै नही चहती कि उन कुछ पलो मे ऐस कुछ भी हो
इस्लिये आज भी फ़ोन नही करुगी
सिर्फ़ इन्तजार करुगी
पिछ्ले कई सालो से यही तो आया है मेरे हिस्से मे
और कर लूगी इस इन्तजार मे
कि एक दिन तुम भी आओगे मेरे हिस्से मे

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

विद्रोह का जन्म

विद्रोह से पहले तक कितना कुछ सहा गया . अपने ही हाथो अपनी उम्मीदों का गला घोटा गया. विद्रोह से पहले तक मैं पराजित था. साहस नही था कि अन्याय के विरुद्ध नजरे उथाकर देख सकू. फ़िर विद्रोह का जन्म हुआ.और अब सब कुछ बद्ल गया है. 'मैं अपराजित हू' कि भावना मेरे मेर केन्द्र मे है. इसकी छांव मे विद्रोह का बीज सांस ले रहा है. जबकी सच तो यह है की मै जानता हू जिसके विरोध मे खडा हू मै वह आज भी मुझसे अधिक शक्तिशाली है.आखिर वर्षों तक उसने मेरे अस्तित्व को कुचला है.इतना की एक झटके मे उठ कर खडा हो पाना संभव नहीं.लेकिन अब मै असहाय नही हू.इससे आगे एक कदम बढाना उसके लिये आसान नही होगा.विद्रोह का सुरक्शा कवच मेरे पास है. भले हि यह तुम्हारे आक्रमणो से मुझे अधिक देर तक बचा न सके. लेकिन जब तक यह है तुम मुझ पर और अधिक नाजायज अधिकार नही कर पाओगे. तुमसे देखी नही जायेगी तुम्हारी पराजय . तुम तिलमिलाओगे चीखोगे चिल्लओगे अपनी विवशता पर .तुम्हारे हर अनैतिक अधिकार को भस्म कर देगी मेरे विद्रोह की आग.छ्टपटाहट मे क्या करोगे तुम. अधिकतम यही ना कि एक दिन बना दोगे मुझे अतीत ,तुम कर सकते हो आखिर अब तक शक्ति का पान तुमने ही तो किया है.लेकिन मत भूलना मेर बाद तुम किसी और पर अपना चाबुक नही चला पाओगे.जब कभी कोशिश भी करोगे तो मेरा विद्रोह आकर रोक लेगा तुम्हारे हाथ.देखना इस अहसास मात्र से तुम कांप कर रह जाओगे.अभी तक चला आ रहा तुम्हारा विजयरथ मेरे विद्रोह को जीत नही पायेगा. मै आज जो विद्रोह कर रहा हू उसका उद्धेश्य भी तुम्हे नही तुम्हारे अहं को जीतना है.मै इसमे सफ़ल होऊगा.और यही मेरे विद्रोह की जीत होगी.

प्रश्न और प्रतिउत्तर

हां मुश्किल है
स्वयं के फ़ैसले पर हर बार विश्वास कि मुहर लगाना
हर बार सही साबित होना
ऐसा हो नही सोचता मै
फ़िर क्या इस बार
तुम्हारा फ़ैसला कर लू स्वीकार
ढक जाने दू अनिश्चय को अपने
तुम्हारे दिखाये भविष्य की छांव में
लेकिन वर्तमान के लिये नही कुछ कहते तुम क्यु
करू मै क्या
रास्ते के बीच मे हू
क्या छोड़ दू इससे आगे का ख्याल
अगर हां
तो जो दूरी तय की
जिस सफ़र को साथ ले आया हू यहा तक
उसे कहां छोडूं,
कैसे छिपाऊ
इन सबके साथ तुम्हाए फ़ैसले को
क्या सच मे स्वीकार कर सकूगा मैं
प्रतिउत्तर नही करूगा
लेकिन
पहले मेरे प्रश्नों क उत्तर दो

सोमवार, 19 नवंबर 2007

कविता विश्वास किया मैने तुम पर.

प्रारंभ कर रहा हू कविता तुमको
जोड गांठ कर शब्दो को
एक विश्वास समेटकर मन मे
तुम मेरे मौन को व्यक्त कर पाओगी
जब कभी नजरे ठहर कर झुक जायेगी
आती जाती सांसो मे मन के भाव
नवजात उम्मीदे बह जायेगी
तुम थामोगी शब्दो का प्रवाह
पिरोओगी उन्की लडी
अनकहा सब कह पाओगी
कविता मेरा मौन बोझ है मुझ पर
दबता जा रहा हू हर पल हर दिन
सह रहा हू कब से पीड़
शब्दो कि रह गये जो भीतर
विश्वास कर रहा हू
तुम हरोगी सब
एक नया जीवन दे पाओगी

रविवार, 18 नवंबर 2007

साहित्य- यत्र तत्र सर्वत्र

साहित्य अगर सिर्फ़ शब्द होता तो शायद पन्नो कि कैद से अजाद न हो पाता। साहित्य अगर सिर्फ़ कविता होता तो रात्रि के आकाश ,स्त्री मन की आस , और नदी की प्यास मे ही खोया रहता. साहित्य अगर केवल बिम्ब होता तो तो कितनी आवाजे खामोशी की चादर मे सिमट्कर रह जाती. सहित्य तो सब कुछ है... साहित्य तो हर जगह है ..यत्र तत्र सवत्र... पहली साहित्यिक रचना क्या रही होगी इसका अनुमान नही लगाया जा सकता. सबसे पहला साहित्य्कार कौन रहा होगा.इस प्रश्न क उत्तर भी मुश्किल है. मनुश्य प्रक्रति कि विशिष्ट रचना है. और मनुष्य की हर भाव भन्गिमा गतिविधि साहित्य है. हमारी ऐतिहसिक धरोहरे इन दोनो का सन्ग्रह ही तो है. साहित्य ने हमारे लोक गीतो से बोलना सीखा. न्रत्य की मुद्राओ मे ढला मौन अभिव्यक्ति का माध्यम बना. जब भाषा का आविष्कार हुआ तो गीत और कहानी बना. समय बदला युग बदले साहित्य की परिधि बढ्ती रही. आज साहित्य के दायरे से कुछ भी अछूता नही है. मेरी कोशिश है साहित्य का एक कोना पकड्ने की .