गुरुवार, 22 नवंबर 2007

स्वप्न…सुनो..

स्वपन
तुम न होते तो
यथार्थ से हर सुबह गले मिलना सम्भव नही होता
तुम्हरी ही दी हुइ आभाशी शक्ति है
जिसने मुझे वास्तविकता की क्रूरता से बचाया है
स्वपन
तुम रात्रि कि नीरवता मे एक मात्र हितैशी हो
मुझे निराश नही करते
कभी ना नही कहते
जब कभी मैने बुलाया
द्वार पर दस्तक पायी तुम्हारी
स्वप्न
मेरी नाकामियो को तुमने स्वीकार नही किया’
मुझे कम्जोर नही होने दिया
कल से बेहतर करने का अहसास दिया तुमने
स्वप्न
याद रहेगा तुम्हारा अपनत्व

1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

हेमन्त जी,आप की रचना के भाव बहुत सुन्दर हैं।बधाई।