गुरुवार, 22 नवंबर 2007

आज तुम आओगे क्या ?

हर बार शाम ४ से ५
एक घण्टा या कुछ और अधिक
पार्क की बेन्च पर समय गुजारती हू
इन्तजार मे …
देखती हू खेलते बच्चो को
बीच बीच मे लौटाती हु छिटककर आयी गेद को
बुनती हू तुमहारे दिखाये सपनो को थोडा सा और
हर बार कि तरह जानती हु
वक्त अपनी सारी दुश्मनी आज निकालेगा
आखिर पुरा एक हफ़्ता उसने इन्तजार किया है
मेरे इस इन्तजार का..
पता नही क्यो..
आज ही तुम्हे काम ज्यादा होता है
देर से क्यो निकल्ते हो आज
बुदबुदाती हू मन ही मन
जान्कर भी कि है ये सब बेकार
मजबूर हू … कही जा भी नही सकती
कुछ दूर घूमकर आ भी नही सकती
अगर कही इस बीच आ गये तुम…
तो ….पिछ्ली बार जो सब हुआ नही दोहराना चाहती
उस सब से तो बेहतर है यही बैथा जाये
और अपनी मजबूरी को सहा जाये
पता नही ऐसे मे तुम कभी फ़ोन क्यु नही करते
कब से सोच रही हू
एक बार तुमसे बात करू
पता करू अभी कहा हो
ओफ़िस से बाहर निकले
या आज फ़िर बसो ने न आने कि कसम खा रखी है
तुम्हे पता है कभी कभी लगता है
हमारे बारे मे सारी दुनिया को पता है
तभी सब मिल्के साजिस करते है
पुरी कोसिस कि हम मिल ना सके
तुम इसे मेरे मन क वहम कहोगे
हो भी सकता है
लेकिन…..हर बार जब इन्तजार करना पड्ता है
तो इसे सच मानने का मन करता है
देख लो..फ़िर से ४.४५ हो गये तुमहरा कोइ पता नही
कितनी बार नम्बर लगा के काट चुकी हू
पता नही क्यु
मेरे फ़ोने करने पर तुम इतना बिगड जाते हो
सारी दुनिया का गुस्सा मुझ पर उडेल देते हो
और आकर भी मुह फ़ुलाकर बैथ जाते हो
हमे वक्त ही कितना मिलता है
मै नही चहती कि उन कुछ पलो मे ऐस कुछ भी हो
इस्लिये आज भी फ़ोन नही करुगी
सिर्फ़ इन्तजार करुगी
पिछ्ले कई सालो से यही तो आया है मेरे हिस्से मे
और कर लूगी इस इन्तजार मे
कि एक दिन तुम भी आओगे मेरे हिस्से मे

कोई टिप्पणी नहीं: